बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के पहले चरण के मतदान के बीच, मोकामा से आई गोलीबारी और जन सुराज समर्थक दुलारचंद यादव की हत्या की खबर ने पूरे राज्य को स्तब्ध कर दिया है। पिछले दो दशकों से बिहार ने खुद को 'शांतिपूर्ण चुनाव' के मॉडल के रूप में सफलतापूर्वक स्थापित किया था, लेकिन इस एकल घटना ने राज्य की कानून-व्यवस्था और चुनाव आयोग की तैयारियों पर गंभीर प्रश्नचिह्न लगा दिए हैं। यह हत्याकांड उन 'काली यादों' को ताज़ा करता है, जब बिहार का नाम चुनावी हिंसा, बूथ लूट और बाहुबल की राजनीति का पर्याय बन गया था, जिससे यह चिंता बढ़ गई है कि क्या राज्य एक बार फिर अपने भयावह अतीत की ओर मुड़ रहा है।
80 और 90 का दशक: जब मतदान था खूनी जंग
1980 के दशक से लेकर 1990 के दशक के मध्य तक, बिहार में चुनाव और मतदान का अर्थ डर और दहशत हुआ करता था। बाहुबलियों और निजी सेनाओं का दबदबा इतना गहरा था कि बूथ कैप्चरिंग, पर्ची फाड़ना, और खुलेआम गोलीबारी आम चुनावी प्रक्रिया का हिस्सा बन गई थी। यह विडंबना है कि बूथ कैप्चरिंग शब्द का पहला आधिकारिक रिकॉर्डेड मामला भी 1957 में बेगूसराय जिले से ही सुर्खियों में आया था।
चुनावी हिंसा में मौतों का सबसे काला आंकड़ा 1990 के विधानसभा चुनाव में दर्ज हुआ, जब चुनावी रंजिशों में 87 लोगों की जान गई थी। इससे पहले 1977 में 26 और 1985 में 69 मौतें हुईं थीं। 1977 से 1995 तक, हत्या, धमकी, और अपहरण चुनावी राजनीति के अपरिहार्य हिस्से बन चुके थे।
सियासी हिंसा की भयावह काली यादें
बिहार की राजनीतिक जमीन कई बार खून से लाल हुई है। यह हिंसा केवल समर्थकों तक सीमित नहीं रही, बल्कि कई बड़े नेताओं को भी इसका शिकार बनना पड़ा। 1990 के दशक तक, बृज बिहारी प्रसाद (तत्कालीन मंत्री), शक्ति कुमार, मंज़ूर हसन, और अशोक सिंह जैसी राजनीतिक हत्याओं ने राज्य की कानून-व्यवस्था को हिलाकर रख दिया था। कई मामलों में तो शव तक बरामद नहीं हुए और न्याय दशकों तक लंबित रहा।
मोकामा में दुलारचंद यादव की हत्या, जिसमें विरोधी बाहुबली के समर्थकों पर सीधे आरोप लगाए जा रहे हैं, उसी पुरानी और खतरनाक प्रवृत्ति की वापसी का स्पष्ट संकेत है, जहाँ बाहुबलियों के बीच चुनावी वर्चस्व की लड़ाई हिंसा में बदल जाती है।
'सुशासन' ने बदली थी तस्वीर: अब खतरा
बिहार में चुनावी माहौल में निर्णायक बदलाव 2005 के बाद आया। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में प्रशासन ने चुनावी हिंसा पर जीरो टॉलरेंस की नीति अपनाई। सुरक्षा बलों की भारी तैनाती, संवेदनशील बूथों पर वीडियोग्राफी और केंद्रीय अर्धसैनिक बलों के प्रभावी उपयोग ने हिंसक तत्वों पर लगाम लगाई। 2010 से लेकर अब तक, अधिकांश विधानसभा चुनाव शांतिपूर्ण तरीके से संपन्न हुए थे, और चुनावी हिंसा में मौतों के आंकड़े लगभग शून्य तक पहुँच गए थे। यह उपलब्धि बिहार की राष्ट्रीय छवि सुधारने में मील का पत्थर साबित हुई।
मोकामा घटना: नए मॉडल पर बड़ा खतरा
मोकामा में हुई यह हत्या इस नए 'शांति मॉडल' के लिए एक बड़ा खतरा है। यह घटना दर्शाती है कि बाहुबल की राजनीति पूरी तरह से समाप्त नहीं हुई है, बल्कि नए सिरे से अपनी जड़ें जमा रही है। दुलारचंद यादव की हत्या की टाइमिंग (मतदान के ठीक बीच) और तरीका (काफिले पर हमला, गोलीबारी) स्पष्ट करता है कि चुनावी रंजिशें अब भी गहरी हैं। चुनाव आयोग और राज्य पुलिस के लिए यह एक बड़ी चुनौती है कि वे इस घटना के बाद सख्त संदेश दें और मोकामा जैसी हिंसा को राज्य के अन्य हिस्सों में फैलने से रोकें, ताकि बिहार की जनता बिना किसी डर के अपने मताधिकार का प्रयोग कर सके और राज्य अपनी पुरानी, हिंसक छवि में वापस न लौटे।